Friday 14 October 2016

इस ब्लॉग की पहली रंगरेजिन आकांक्षा की कविताएं ......






"हमने चुना है आजीवन पुल होना" हिंदी कविता की एक रंगरेज़ आवाज आकांक्षा अनन्या इंसानियत के इश्क में औरत का मिज़ाज बयां करने वाली संजीदा कवि हैं। भाषा की बनावट में कहीं कागज़ के फूल नहीं हक़ीक़त के रूप हैं, रस हैं, गंध है कई-कई रंग है जीवन के गहरे-हल्के। कविता कविता के लिए नहीं, एकदम लापरवाह है इस मामले में वह। यहाँ स्त्री वैचारिकता अपने स्वभाव के अनुकूल संवेदनाओं के संवाद करती हुई दिखती है, भावुकता की अति कहीं नहीं, इति पर अधिकार सा है , सामंजस्य का भव नहीं। कविताएं मन की कोमलता को छूती है । पढ़िये आज इस ब्लॉग की पहली रंगरेजिन आकांक्षा की कविताएं ......        






बुरी औरतें


बुरी औरतें
निकल जाती हैं दनदनाती हुयी
मर्दानी चाल में
भूल जाती हैं कभी तो
दुपट्टा उठाना घर से
अच्छी औरतें जहाँ जाती हैं
जातीं हैं सर पर पल्लू रख
पति-पुत्र की निगरानी में
अच्छी औरतें होती हैं सलीकेदार
बात-बात पर रोने लगती हैं
उनके आदमी का कंधा होता है उनके पास
वे डरती हैं परछाईं-छिपकली-कोकरोच से
बुरी औरतें
रोज जूझती हैं घर के बाहर की दुनिया से
जीभ में घुल जाती है पुरुषों की कर्कसता
बुरी औरतों का सलीका रखा होता है ताड़ पर
बुरी औरतें
रोज आरती की थाल सजाकर
पूजा नहीं करती
नहीं करती
सोलह सोमवार,करवाचौथ,तीज,छठ
सबसे नजरें बचाकर
अकेले में रो जरूर लेती हैं दहाड़कर
बचाए रखने की कोशिश करती हैं डूब चुकी आस्था
अच्छी औरतें जो अच्छी होती हैं
समझती हैं बहुत बुरा बुरी औरतों को
मुँह को साड़ी के छोर से ढककर
करती हैं निंदा-घृणा बुरी औरतों से
बुरी औरतें
उनकी इस अच्छाई को भी कर देती अनसुना
और फिर चल देती हैं सरपट चाल में !




दोगला समाज 


मैं माँ को जानती थी
फिर प्रेम को जाना
और फिर भूख
फिर
फिर सो गयी चैन की नींद
दो ऐसे शब्द मैंने
समाज के मुँह से सुने
शब्द-
ईमान और छलावा
दो शब्दों का पाठ भी
इस समाज ने सिखलाया
पहले सिखाया ईमान वाले बनो
और जब मेरे ईमान से
समाज खतरे में पड़ा
तो सिखाने लगा छली होने के फायदे
ये समाज दोगला है
इस समाज की बातों पर कभी मत जाना !




हमने चुना है आजीवन पुल होना


तुम पार कर जाओ
अपनी जीवन यात्रा
हम से गुज़र कर
रौंद जाओ हमारी देह
हज़ार बातों के पहियों से
हम उफ़ नहीं करेंगीं
शायद थर्रा जाएँ
ये सोचकर
कि हमने जोड़ना चुना है
सहना चुना है
दहना चुना है
अब हमारे नदी होने के प्रतिमान बदले जाएँ
हमने चुना है आजीवन पुल होना
हमने बेटी होना चुना है !




बेवा

अपने नए युग पर इतराती हुयी
बड़े हौंस में लडकियाँ
अब तन के चलती हैं ऊँगली और अँगूठे की रगड़ से
मूँछ वाली जगह पर
ऐंठ मारती हैं और खुश होती हैं जब बैठती हैं
किसी महिला बॉस की सीट पर
जब देखती हैं
अपनी ही एक रफ़्तार
स्कूटी की पिछली सीट पर
अपने अग्रिम पुरुषों को बैठाले पर क्या भनक थी
कि क से सिर्फ कविता नहीं होती
कुरीति भी होती है ! पड़ोस की एक लड़की बेवा हो गयी
गोद में सफ़ेद साड़ी पड़ते ही
खून का रंग सफ़ेद हो गया
रंग जो उसे हमेशा से पसन्द थे
सूरज जो वो माथे पर रखती थी
बिछिये जो उसे इस बन्धन से बांध कर रखते थे पास की तलैया में
उसे और उसके रंगों को ले जाकर
बेरंग कर दिया
बेवा होना रंगों पर सेंधमारी है
हमेशा से सुन्दर लगने वाली तलैया
पहली बार
अपने अंडे खा जाने वाली नागिन लगी होगी जीवन,शादी,रंग
पहली बार लिटमस पेपर लगे होंगे
पहली बार सामाजिक कुरीतियाँ
रासायनिक क्रियाओं पर भारी पड़ी होंगी
इस वैज्ञानिक युग को
पौराणिक युग से सीखना चाहिए
कि कैसे बिना तेजाब के
रंगों को बेरंग किया जाता है..


नक्शा बदलने तक 

समय बदल रहा है
समय के साथ-साथ लोगों की सोच
नव युवकों की भी अब नवयुवकों को
पाँव पे पाँव धरती पत्नियाँ पसन्द नहीं आतीं
वे स्कूटी के पीछे बैठ
निकल जाना चाहते हैं लम्बी सैर पर
हाथ में हाथ थामे जाना चाहते हैं काम पर नवयुवतियाँ भी चाहती हैं
कि थके हारे दिन के बाद
रात के खाने में सब्जी तुम बना दो
क्योंकि रोटियों को तुम
देश का नक्शा बना देते हो क्या ?देश का नक्शा ?
तुम बनाने दो उन्हें देश का नक्शा
शायद यहीं से कुछ देश की तस्वीर बदले !




लड़कियां 


लडकियाँ
जब पैदा होती हैं
फूटती हैं झरने सी
अल्हड़ सी बहती हैं तुम काली नज़र वाले
लगाने को लगाम
उलीच लेते हो
बाल्टी भर भर पानी लड़कियाँ सूख के ठहरा ताल हो जाती हैं !


माँ 

माँ के सारे मीठेपन का
पिता में विलय हो गया पिता
फिर भी खारे बने रहे
माँ
मीठी की मीठी और जब तक रहेगी
मीठी रहेगी
पिता
खारे के खारे युगों की रीत है
कई नदियों का मीठापन भी
समन्दर को मीठा नहीं कर पाता -



माँ पिता हो जाया करती 

सुबह उठती है
बर्तन माँजती है
खाना पकाती है वह घर के सारे काम निपटाती हुयी
माँ कहलाती है फिर खूंटे पर टांगती है
सुबह की थकान
ऑफिस का बैग उतार
कंधे पर चढ़ाती है
थोड़ी और मजबूती ओढ़
और अक्खड़ हो
भौयें तान के
पिता की आत्मा धारण करती है और सरपट चाल में
निकल लेती है घर से पत्नी जिनके पति नहीं होते
पिता हो जाया करती हैं !




भूख मिटाती स्त्रीलिंग


अनुपात में कम होती औरतें
विलुप्ति के अंतिम पायदान पर
एकदम खाली हाथ खड़ी हैं
अलग-अलग सम्बन्ध निभाती औरतें
अपनी आत्मा का
थोड़ा-थोड़ा हिस्सा नोचकर
बराबर मात्रा में बांटकर दे आयीं हैं तुमको
सूखी पड़ी धरती
कट चुकी फसल के बाद
थोड़ी देर को करवट ले सुस्ता लेती है
बीते समय की
हरियाली-धानी और सुनहरे रंग की
साड़ियों के चिथड़ों को समेटती हैं
और सिरहाने गठरी बनाकर रख लेती हैं
रात-दिन दुकान सजाये वैश्या
कुचले गजरों को समेटकर
कूड़ेदान में डाल आती है
काजल पर काजल
लाली पर लाली सजाती हैं
और कुचली सी देह लिए
फिर दुकान लगा बैठ जाती हैं
माँ स्त्रीलिंग है
वेश्याएं भी
धरती भी स्त्रीलिंग है
स्त्रीलिंग की छाती जोतकर
भूख मिटाने की परम्परा
आदिकाल से चली आई है !




विदा से पहले 


माँ कभी नहीं कहती कि
बैठ जाओ /सुस्ता लो
अभी एक और घर बनाना है
इन्हीं कच्ची हथेलियों से
हम ही चाहते हैं
आराम से बैठ जाना
पुरानी थकान लिए
विदाई के अन्तिम दिनों में विदाई के अन्तिम दिनों में
उन किताबों पर नज़र जाती है
जो साथ ले जानी हैं
एक ही दराज़ में रखे कपड़े
कुछ छुटकी के हो जाते हैं कुछ हमारे पहुँच से दूर होते रिश्ते
अचानक से
और स्नेही दिखने लगते हैं
हम गांठ में जोड़ने लगते हैं
सबका चुटकी भर प्रेम आँगन/आंगन में लगा तुलसी का बिरवा
चौका/चौके के बारीक काम
कमरा/कमरे की खुद से सजाई दीवारों पर
नज़र ठिठक-ठिठक जाती है
हम विदा से पहले दे चुकते हैं
घर के आँगन को भीगी पलकें विदाई के अंतिम दिनों में
जब भी देहरी पार करती हूँ तो
साँस खुद ब खुद थम जाती है
दो देहरी के गृह युद्ध में मायका कभी नहीं छूटता
बेटियाँ ही भेद कर लेती हैं
विदा से पहले
अपने और पराये घर में..!!!


बंटवारा 

क्या इतनी जरूरी हैं
सामाजिक मान्यतायें
क्या ईश्वर-ईश्वर बटा है
या सिन्दूर-सिन्दूर
या तुम्हारी अग्नि के कुण्ड में
अलग देव विद्यमान थे
या माँ-माँ की कोख बटी है
जो तुम्हारे रिवाज़ से गर्भवती न हुयी
तो गर्भपात कराना पड़ा
क्यों सिद्ध करना पड़े
भीड़ के सामने
अपने सिन्दूर की कीमत
ईश्वर के साक्षी सम्बन्ध की कीमत
उस रात की कीमत
कोख जने बच्चे की कीमत
क्या बगैर मान्यता सब अवैध है ??
सिन्दूर, ईश्वर ,प्रेम, कोख सब??
क्या वही वैध है
जो मनुष्य ने मनुष्य के लिए तय किया
सदियों की परम्परायें
सदियों के रिवाज़
झटपट तैयार वर-वधू
झटपट तैयार सुहाग रात
झटपट तैयार वंश
असल में तुम जानते ही नहीं
तुमने यहाँ कितने सुनियोजित बलात्कार कराए हैं
यहाँ कितनी कुवारियाँ हैं जो विवाहिता हैं
कितने विवाहित हैं जो पुनर्विवाहित हैं..!!!











आकांक्षा अनन्या 
कानपुर 

7 comments:

  1. विंदास, बेहतरिन , लाजबाव

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  2. आकांक्षा की कविताओं से भावनात्मक जुड़ाव महसूस करती हूँ । और क्या कहूँ !
    निशा कुलश्रेष्ठ

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  3. ये समाज ये परिस्थितियों कितनी तरह की औरतो को बनाता है अच्छी बुरी औरते ,,,,,,नारी को भिन्न भिन्न कोण से देख कर सटीक सपाट शैली मे बहुत उम्दा

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  4. ये समाज ये परिस्थितियों कितनी तरह की औरतो को बनाता है अच्छी बुरी औरते ,,,,,,नारी को भिन्न भिन्न कोण से देख कर सटीक सपाट शैली मे बहुत उम्दा

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  5. lajwab bahut khub.....bahut umda lekhni....

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  6. बेहद ही समाजिक कृत्य और भावनाओं का अनुभव है, यह मात्र कविताये नही है, एक विचारात्मक भाव है जिससे जुड़ते ही खुद का परिचय सत्यता से हुआ।।

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  7. बेहद ही समाजिक कृत्य और भावनाओं का अनुभव है, यह मात्र कविताये नही है, एक विचारात्मक भाव है जिससे जुड़ते ही खुद का परिचय सत्यता से हुआ।।

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