समेटी उसने
तितलियों की रंगीनी
अपने सफेद आंचल में।
भरी उसने अपनी खाली अंजुली
खुशियों की सीपी से।
छुपा लिया मोतियों को
पलकों के भीतर।
गूंथना सीख लिया सितारों को
अपनी सूनी चोटी में।
कर लिया शामिल जिन्दगी को
मैराथन में जंगली खरगोशों के।
विसर्जित करना जानती थी वह
तकलीफों को नदी,नालों,नहरों में।
महसूसती थी वह रोम रोम की थिरकन
मोरों की थिरकन के साथ।
बेपरवाह थी वह एकदम
उस चीखते समाज से
बर्दाश्त नहीं था जिसे
श्रृंगारिक होना किसी विधवा का
मुस्कराती वह बेहद शालीनता से
इनकी नासमझी पर।
इकट्ठा करती वह
अपनी श्रृंगार पेटी में
मिट्टी की खुशबू,विस्तृत आकाश
महासागरों और नदियों का पानी
सूरज की गर्मी,हवाओं की छुअन।
खोलती वह आहिस्ता
अपने कमरे की खिडकी
और सौन्दर्य को जीने की चाह
बना देती है उसे एक चिडिया
अब भी लोग कुढ़ते हैं देख उसे
प्यार करते हुए
श्रृंगार करते हुए।
प्रेम और मूँछें
ख्वाहिश थी उसकी कि
मूँछ वाला हो उसका प्रेमी।
बडी मूँछ वाला
रौबदार मूँछवाला।
टिका सके जिसपर
वह अपनी कलम
और लिख सके
सच को सच
और झूठ को झूठ।
चाहती थी वह कि
समा जाए धरती
प्रेमी की मूँछ में
ताकि संभव हो नापना
दुनियां का ओर छोर
बस एक बित्ते में।
ख्वाब थे उसके कि छिपकर
मूँछों की ओट में
चखेगी वह सोंधी मिट्टी
कुल्हड के टुकडे
छोटे - छोटे चॉक।
बेचैन इच्छा थी कि
उग आये प्रेमी की मूँछे
ताकि मिल जाए उसे प्रमाण
महफूज होने का।
सपनों के गणितीय
जोड घटाव के बाद
निर्णय था उसका अन्तिम कि
होनी ही चाहिए प्रेमी की मूँछ
जिससे बना सके वह एक डोंगी
पार करे वह सातों लोक नदियां
मशहूर है जो अपने भीतर के
भयानक गहरे कुओं के लिए
जो खींच लेते है डोंगियाँ
हमेशा पाताल में।
-ज्योति तिवारी शोधार्थी
काशी हिंदू विश्वविध्यालय